देखे जो स्वप्न सवेरे (Work in Progress―Hindi Poem)

मृत सुमनों की क्यारी में
दावानल भड़क रहा है
खण्डित विटपों के पत्तों 
पर शोणित झलक रहा है

चिर विह्वल मेरे उर को
इन राख हुए पत्तों से
मन बहलाने के हेतु
मैं घड़ी घड़ी भरता हूँ

चिर अभिशापित इस तन में
दो शेष रक्त की बूंदे
जिनसे भूखे इस मन को
मैं रोज़ तृप्त करता हूँ

हा! वो दिन भी कैसे थे
जब नित रवि की किरणों में
तेरे अधरों के सिंधु में 
मैं रोज़ बहा करता था।

तेरे उन मांसल बाहों में
नित चपल चुलबुले बच्चे सा
जीवन के सारे सुख पाकर
मैं रोज हंसा करता था।

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