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College Woes (in Hindi)

लोग अकसर कहतें हैं कि "यह घोर कलयुग है"; आजकल नीति-धर्म का ह्रास हो रहा है";  असल बात यह है कि ह्रास किसी और चीज का हो रहा है और शोक किसी और चीज का मनाया जा रहा है।  दिक्कत यह है कि आजकल समाज नैतिकता कपड़ों में ढूंढ़ता है—शायद हम यह भूल जाते हैं की मरणशय्या चाहे कितनी ही देदीप्यमान हो, चाहे उसमे नाना प्रकार के रत्न जड़ित हो, अंत में उसपर एक मृत शरीर ही पड़ा होता है—जिसे या तो आग की लपटें समा लेती हैं अथवा कीड़े-मकोड़े अपना भोजन बना लेते हैं। दूसरी ओर, कीचड़ से उत्पादित बदबू कितनी ही असहनीय क्यों न हो, अंत में कमल उसी में उगता है। हम हत्या तथा बलात्कार के नंगे क्रीड़ाओं के सामने आंखें मूंद लेते हैं लेकिन क्रॉप टॉप पहनी लड़की पर हजारों बेहूदी टिप्पणियां करते हैं।  खैर, मेरा उद्देश्य समाज में फैले विरोधाभास को उजागर करना नहीं है। मेरा उद्देश्य आपका ध्यान उस नैतिक पतन की ओर आकर्षित करना है, जिसका ढिंढोरा लोग बड़े चाव से पीटते हैं।  कॉलेज में सात महीने रहने के पश्चात मैं कह सकता हूं कि बाल्यावस्था में मैंने अच्छाई के जितने भी बुलबुले बनाए थे, सब फूट चुके हैं।  आखिर कहां से शु