College Woes (in Hindi)
लोग अकसर कहतें हैं कि "यह घोर कलयुग है"; आजकल नीति-धर्म का ह्रास हो रहा है"; असल बात यह है कि ह्रास किसी और चीज का हो रहा है और शोक किसी और चीज का मनाया जा रहा है।
दिक्कत यह है कि आजकल समाज नैतिकता कपड़ों में ढूंढ़ता है—शायद हम यह भूल जाते हैं की मरणशय्या चाहे कितनी ही देदीप्यमान हो, चाहे उसमे नाना प्रकार के रत्न जड़ित हो, अंत में उसपर एक मृत शरीर ही पड़ा होता है—जिसे या तो आग की लपटें समा लेती हैं अथवा कीड़े-मकोड़े अपना भोजन बना लेते हैं। दूसरी ओर, कीचड़ से उत्पादित बदबू कितनी ही असहनीय क्यों न हो, अंत में कमल उसी में उगता है। हम हत्या तथा बलात्कार के नंगे क्रीड़ाओं के सामने आंखें मूंद लेते हैं लेकिन क्रॉप टॉप पहनी लड़की पर हजारों बेहूदी टिप्पणियां करते हैं।
खैर, मेरा उद्देश्य समाज में फैले विरोधाभास को उजागर करना नहीं है। मेरा उद्देश्य आपका ध्यान उस नैतिक पतन की ओर आकर्षित करना है, जिसका ढिंढोरा लोग बड़े चाव से पीटते हैं।
कॉलेज में सात महीने रहने के पश्चात मैं कह सकता हूं कि बाल्यावस्था में मैंने अच्छाई के जितने भी बुलबुले बनाए थे, सब फूट चुके हैं।
आखिर कहां से शुरू करूं? क्या कहूं? किन बातों पर विलाप करूं? ठोकरें इतनी खाईं हैं कि अब जी मचलाता भी नहीं है। सब कुछ शून्य सा प्रतीत होता है। सारी बाते खोखली लगती हैं। खुद को लाख समझाता हूं कि ऐसा मत कर, लेकिन अंत में प्राय सभी को शक की नजरों से ही देखता हूं। पहले दुख इस बात का होता है कि संसार में कोई विश्वास का पात्र नहीं रहा और फिर इस बात का कि मैं ऐसा सोचता हूं। क्या ऐसे लोग नहीं है जिनपर मैं आंखें मूंद कर भी भरोसा कर सकता हूं?
परिस्थिति कुछ ऐसी है कि लोग विनम्र व्यक्तियों को ऐसे घूरते है कि मानों उनके पर निकल आए हों। वर्तमान समय में शालीनता ईद के चांद के समान हो चुकी है—दूसरों को नीचा दिखाने, उनका अपमान करने एवं उनके रहन-सहन पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करने में लोग तनिक भी संकोच नहीं करते। अपशब्द तो अब साधारण बातचीत का अभिन्न अंग बन चुके हैं—न जाने कितने बार संभवतः कूल दिखने के चक्कर में लोग अत्यंत घिनौनी गालियों का उपयोग कर डालते हैं। सामने वाले के भावनाओं का विचार कोई नहीं करता।
इनकी जिह्वाएं अपने समक्ष अन्याय होते देख ठंडी पड़ जाती हैं किंतु पराए मनुष्य की भर्त्सना करने में देर नहीं लगातीं।
कैसी विडंबना है!
झूठ बोलना एवं परीक्षाओं में दो-तीन अंकों के लिए इधर उधर ताकना—यह सब कितना साधारण सा हो चुका है। अब मैं यह नहीं मानता की सर्वदा सत्य ही बोलना चाहिए—यदि आपके झूठ बोलने से किसी निर्दोष को हानि पहुंचने से बचाया जा सकता है, तब आपको निःसंकोच झूठ बोलना चाहिए। समस्या यह है कि आजकल लोग अकारण अथवा अपना स्वार्थ देखकर बेधड़क झूठ बोलते हैं। स्वयं अथवा अपने किसी सहपाठी द्वारा कृत अपराध को छिपाने हेतु या किसी तथाकथित प्रतियोगी के संभावित उत्थान को रोकने हेतु मेरे बैचमेट्स मिथ्या बोलने में एक घड़ी भी नहीं हिचकते हैं।
सच बोल देने से आपको कौवा तो नहीं काट खायेगा न! तथा याद रखें, फरेबी से कमाया धन दस दिन भी नहीं टिकता है।
यदि मैं चरित्रहीनता का बखान करना शुरू कर दूं तो मेरी उंगलियों में छाले पड़ सकते हैं। १९-२० वर्षीय नौजवान उन महिलाओं के शारीरिक बनावट पर टिप्पणियां करते हैं जो उनके मातृतुल्य हैं। अपने महिला सहपाठियों को यह हैवान ऐसे घूरते है मानो वे दो-तीन हफ्तों से भूखे कुत्ते हैं एवं उनकी महिला सहपाठी उनका आहार है। कामवासना स्त्रियों को भी नहीं छोड़ता—कमिटेड होने के बावजूद वे अक्सर पराए पुरुषों से नैना लड़ाती रहतीं हैं। खैर पराए पर मोह करना तो अब नया फैशन बन चुका है—नर एवं नारी दोनो ही इस सन्निपात से ग्रसित हैं। यही नहीं, आजकल तो बीड़ी-सिगरेट फूंकना, ड्रग्स इत्यादि नशीले पदार्थों का सेवन करना अथवा सेवन करने की इच्छा प्रगट करना—यह सब स्वीकार्य हो चुका है।
बलात्कार, पीडोफिलिया, जानवरों के साथ दुष्कर्म—आजकल इन जघन्य कृत्यों पर भी जोक्स बनने शुरू हो चुके हैं। संवेदनशीलता कांग्रेस के उपयोगिता के अनुरूप समाप्त होते जा रही है।
लेट मी एड्रेस द एलीफेंट इन द रूम नाउ।
जातिवाद।
दमघोंटू जातिवाद।
भारत के पतन का एकमात्र कारण—जातिवाद।
हिंदुओं के विभाजन का एकमात्र कारण—जातिवाद।
मानव विकास के पथ का क्षयकारक कंटक—जातिवाद।
मैं जनरल कैटेगरी से हूं। मैंने IAT क्रैक किया और IISER Berhampur में दाखिला लिया। मुझमें हुनर था इसीलिए मैं ऐसा कर पाया। इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं है। मुझे इस बात को कोई गर्व नहीं कि मैं जनरल कैटेगरी से ताल्लुक रखता हूं। मेरे गांववालों के लिए मैं राजपूत अथवा ठाकुर हो सकता हूं; मेरे लिए इस झूठी शान का कोई अर्थ नहीं हैं। दूसरों के अधिकारों को छीनना, पशुवत व्यवहार करना, ब्रह्मज्ञान पूजापाठ से वंचित रखना, एवं उनके पुरुषों को हमारी स्त्रियों से विवाह न करने देना यदि आपके अनुसार गर्वांवित करने वाली बातें हैं तो आपको यह सड़ी हुई सोच मुबारक हो। मेरे अनुसार जनेऊ शर्मा, द्विवेदी, मिश्र, सिंह, चौहान, बनिया, तेली, मांझी, यादव, चांडाल—कोई भी धारण कर सकता है। वेद केवल यज्ञोपवित धारण करने वालों की धरोहर नहीं है। जो नदी-नाले साफ करते हैं वे वेदमंत्रो का पाठ भी कर सकते हैं एवं दूसरों के घरों में जाकर षोडशोपचार पूजन करवा भी सकते हैं। सभी मनुष्य समान है।
(यह कर्म स्त्रियां भी कर सकती हैं; भला क्यों एक स्त्री विवाह समारोह को संचालित नहीं कर सकती?)
किंतु मात्र कह देने से कोई समान नहीं हो जाता। कुत्तों से भी बदतर ट्रीट किए जाने वाले दलितों की पीड़ा केवल "तुम सब एक हो" कह देने से मिट नहीं जाती। अमूक छात्रों का हैरेसमेंट—केवल उनके आरक्षित स्टेटस के वजह से—थम नहीं जाता। तथाकथित छोटे वर्णों के पुरुषों का ऑनर किलिंग इस नॉट ए थिंग ऑफ द पास्ट। आरक्षण का रोना जब रोना होता है तब समता का मीठी बातें याद आती हैं किंतु विवाह के वक्त ये सारे सिद्धांत धरे के धरे रह जाते हैं। यदि सब समान है फिर क्यों तथाकथित कोइरी के सिंह उपनाम ले लेने से आपकी इतनी जलने लगती हैं? "कोई भी क्षत्रिय बन जाता है"—अच्छी बात है न! जिसमें जिसका गुण है, उसे वही करना चाहिए।
(वैसे मैं वर्तमान के ब्राह्मणों के विरुद्ध फैलाए जाने वाले विष के भी खिलाफ़ हूं। प्रत्येक जनेऊधारी जातिवादी नहीं होता। विभूति धारण करना caste supremacy ka chinh नहीं है। भले ही आजके ज़माने में ब्राह्मणत्व एवं शुद्रत्व जन्म के अनुसार तय किए जाते हैं, अकारण ब्राह्मणों से घृणा करना भी जातिवाद है। हर शुक्ला प्रवेश शुक्ला नहीं होता।)
मेरे अनुसार असली नैतिक पतन यही है।
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