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नारिचरित (A Feminist Work In Progress)

  जे कठपुत सम मोहि नचाहीं। सुनहु तात नहि अस पति चाहीं। जिन्ह निज समुझै त्रिय के साईं। जिन्हकर उर भए पाखन नाईं।। (जो मुझे कठपुतली के जैसे नचाएंगे, हे तात, ऐसे पति मुझें नहीं चाहिए। जो स्वयं को स्त्रियों के स्वामी समझते हैं, जिनके हृदय पत्थर के जैसे हो गए हैं―) जिन्ह लगि त्रिया कामसुख पाईं। सबल अबल जेहि रोज कराइं। तिन्ह ते अधम जगत महँ नाहीं। तिन्ह महुँ सब अघ पाप समाहीं।। (जिनके लिए स्त्री केवल कामसुख भोगने के लिए है, जो प्रतिदिन सबला को अबला बनाते हैं [अर्थात नारी से उसका स्वत्व छीनते है]―उन से अधम इस जगत में कोई नहीं है; उनमें सकल पाप समाहित हैं।) चितउँ नाही बड़ दूर बियाहू। निजहि गरल पीयत का काहू। अचख पंगु अनबोल सुहावहि। कामि रोषि कद घर नहि आवहि।। (I shall not even see them; marriage is too far-fetched an idea! Who drinks poison on his own accord? The blind, the handicapped, the dumb―these I shall come to cherish, but an irritable, lustful man shall never reside in my house.) भलेहि भतार होउ चंडाला। जदि सुसील तेहि गरदन माला। स्वान भाखी पुनि होउ गोसाईं। पूजब निज अराध कर नाई।। (Even if ...